आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने तो सिर्फ केशव के लिए कहा था कि उन्हें कवि का हृदय नहीं मिला था, लेकिन हम तो कहेंगे कि आजकल के कवियों को कवि हृदय नहीं मिला है। उनके दिल की जगह दिमाग लगा है। वह भी पिलपिला, बोदा और मीडियाकर। सच्चा कवि हृदय मिला होता, तो उनके पास इस वसंत में अपना एक वसंत होता। कम से कम एक वसंती कविता होती। वसंत जैसा आइटम हो और कवि चुप्पी लगा ले, तब भला कवि का क्या कहा जाए? वसंत आया है। कवि नहीं ‘आया’ है। इधर वसंत विमर्श कर रहा है। उधर कवि है कि दूसरे की कीर्ति जनित अमर्ष से मरा जा रहा है।
वसंत है। कामदेव का पंचम शर है। हवा को लगा है। वह बावली हुई जा रही है। वह मतवाली होकर गा रही है- हवा हूं हवा मैं वसंती हवा हूं। धन्य कलम केदारनाथ अग्रवाल की, जो वह ऐसी अल्हड़ कविता दे गई। कविता में वसंती हवा अलमस्त होकर नाचती-झूमती दौड़ती दिखती है। एक बार पढ़ लें, तो आप भी हवा हो उठेंगे। वसंत ने तो कई दिन पहले ही सबको एसएमएस कर दिया था कि वह आ गया है, लेकिन कवि ने अपने मोबाइल मन को नहीं पढ़ा। अगर पढ़ा, तो समझा नहीं कि वसंत आया है।
वसंत आता ही इस खातिर है कि कवि का शिशिर से सूखा ठंडा हृदय थोड़ा धड़क उठे, फड़क उठे और अपने रंग में आए। वह कुछ रंग बरसाए। कविता में रंग और रस नहीं बरसा, तो कविता क्या खाक हुई? पता नहीं कब से वसंत ने कविता को सीटी नहीं मारी। मारा होता, तो कुछ कविताएं हमें वसंती रंग में नाचती-गाती जरूर मिलतीं। ऐसा दुष्काल है कि ढेर कवि हैं। ढेरों कविताएं हैं। लेकिन वसंत का भाव नहीं है। कविता का संकट ही यह है कि वह अपनी ऋतुएं भूल गई है। एक जमाना था कि हर कवि षट्-ऋतु वर्णन करता था। हर ऋतु के मिजाज का, उसके प्रभाव का वर्णन करता था। अब के कवि के लिए तो षट्-ऋतु भी एक षड्यंत्र की तरह है।
षट्-ऋतु को जाने बिना वसंत कैसे जानोगे? यह कैसी ‘चरम सामाजिक’,‘परम प्रतिबद्ध’ और ‘क्रांतिकारी’ कविता है कि उसमें ‘ऋतु’ का निशान तक नहीं मिलता? हमारे बीच बड़े-बड़े नामी और इनामी कवि मौजूद हैं। आप उनके नाम हटाकर उनकी कुछ-कुछ कविताएं एक साथ मिलाकर छाप दें और फिर पढ़ें, तो आप क्या खुद कवि तक नहीं पहचान पाएंगे कि इनमें कौन-सी कविता उनकी अपनी है? कारण यही है कि किसी कवि की न तो अपनी अलग कोई ऋतु है, न रंग है, और न रस है। हिंदी में ‘बहुलता’ की बातें बड़ी ‘बहुलता’ से होती हैं। बहुस्वरता की भी बातें होती हैं, लेकिन किसी भी कवि की न अपनी कोई खास रीति है, न कोई खास वृत्ति है, न कोई खास ढब है, न कोई खास रंग है, न कोई खास स्वर है, न कोई खास शैली है। सबका रूप एक-सा है। मानों सब कविताएं ‘मेड इन चाइना’ हों। राजनीति ने ऋतुराज की हत्या कर दी है। ‘बुके’ ने वसंत की जगह ले ली है।
वसंत से बेगाने समय में रीतिकाल के कवि पद्माकर का एक छंद याद आता है:
कूलन में केलि में कछारन में कुंजन में,
क्यारिन में कलित कलीन किलकंत है।
कहै पद्माकर परागन में पौनहु में,
पातन में पिक में पलासन पगंत है।
द्वारे में दिसान में दुनी में देस देसन में,
देखौ दीपदीपन में दीपत दिगंत है।
बीथिन में ब्रज में नवेलिन में बेलिन में,
बनन में बागन में बगरयो बसंत है।