‘लोक’ बहुअर्थी शब्द ह। बाकिर जब ई साहित्य, संस्कृति, विद्या, विश्वास आदि शब्दन के आगे जुड़ जाला त एकर अर्थ हो जाला आम आदमी, सामान्य जन समुदाय, गंवई जीवन जीये वाला स्वाभाविक मनई, विज्ञापनी-बनावटी तामझाम से दूर जमीनी जीवन जीए वाला प्रकृतिप्रेमी इंसान आदि। ‘लोक’ शब्द से संबोधित एह जन समुदाय का सहज-स्वाभाविक प्राकृतिक ज्ञान, जीवन-व्यापार, प्रथा-पेशा, रहन-सहन, रीति-रिवाज, विश्वास-धारना, आस्था-मान्यता, तंत्र-मंत्र, क्रिया-कलाप, विधि-विधान, परम्परा-पहचान, गीत- गाथा, कथा-कहानी, नृत्य-नाटक, लोकोक्ति-मुहावरा वगैरह का बोध करावे वाला विद्या भा जानकारी के लोक विद्या कहल जाला। भारतीय ज्ञान के संदर्भ में इहे लोक विद्या कालक्रम से परिष्कार पाके समय-समाज का प्रगतिशील अपेक्षा के अनुरूप शास्त्रीय विद्या के रूप ले लेवे ला। पच्छिम के विद्वान एकरा के आदिम मानव भा प्रगतिशीलता भा आधुनिकता के धारा से पिछुआइल जन समुदाय से जोड़ के एकर मूल्याकंन घटा देलन। बाकिर भारतीय विद्वान लोग शुरू से लोक आ शास्त्र का ज्ञान के एक-दोसरा के पूरक आ सहायक मानत आइल बाड़न। अइसे अब पच्छिमो के विद्वान लोग भारतीय लोकविद्या विषयक विद्वानन का विचारन के समर्थन करत नजर आ रहल बाड़न। लोक विद्या खातिर अंगरेजी में ‘फोकलोर’शब्द चलेला।
‘फोकलोर’ शब्द एगो सामासिक शब्द ह। जवन ‘फोक’ आ ‘लोर’ शब्द का मेल से मिलल बा। एकर फोक (Folk) शब्द बनल बा ऐंग्लो सेक्सन शब्द फोल्क ( Folc ) से। एकरा के जर्मन में वोल्क ( Volk ) कहल जाला। पच्छिम में एगो विद्वान भइलें डॉ. बार्कर। ऊ एह फोक शब्द के व्याख्या करत कहलें कि एह फोक शब्द से सभ्यता ( सभ्य समाज ) से दूर रहेवाला कवनो सउँसे जाति के बोध होला। बाकिर एकर व्यापक अर्थ लिहल जाए त कवनो सुसंस्कृत राष्ट्र के सबलोग एह शब्द से संबोधित हो सकेलें।
फोकलोर में दूसरका शब्द बा ‘लोर’ (Lore)। ई लोर शब्द ऐंग्लो सेक्सन ‘लर’ ( Lar ) से बनल बा। एह ‘लोर’ भा ‘लर’ के अर्थ होला ज्ञान भा नालेज ( Knowledge) चाहे विद्या भा ज्ञान ( Learning)। एह तरह से फोकलोर शब्द के शाब्दिक अर्थ भइल लोक विद्या चाहे लोक ज्ञान)। जवना के उल्लेख ऊपर कइल गइल बा। ऊ कुल्ह चीज एह ‘लोक विद्या’ मतलब ‘फोकलोर’ के सीमा-रेखा का आंतर में आवेला।
पच्छिम में पहिले लोक विद्या यानि फोकलोर का अध्ययन क्षेत्र में आवेवाला एह विषय सामग्रियन के लोकप्रिय पुरातत्व के सीमा रेखा में गिनल जात रहे। आजुओ एह फोकलोर शब्द खातिर जर्मन में ‘फोल्क्स कुण्डे’ (Folks Kunde) शब्द चलेला। बाकिर लोक ज्ञान भा लोक विद्या खातिर दुनिया में ‘फोकलोरे’ शब्द ज्यादे प्रचलित बा। जवना विषय सामग्री खातिर पहिले लोकप्रिय सामग्री (Popular Antiquities) चाहे लोकप्रिय साहित्य (Popular literature) शब्द चलत रहे। ओकरा खातिर सबसे पहिले सन्1846ई. में विलियम टोम्स ( William Thoms) एम्ब्रोज मर्टन ( Ambrose Merton) छद्म नाम से ‘ द एथीनियम ‘( The Athenaeum) नाम के पत्रिका में आपन एगो आलेख छपववले, जवना में उनकरे प्रस्ताव रहे कि ‘ लोकप्रिय पुरातत्व सामग्री’ के जगहा सुन्दर सेक्सन सामासिक पद ( Good Saxon Compound ) ‘फोकलोर’ शब्द के बेवहार करेके चाहीं। ऊ एकरा अन्तर्गत रीति, प्रथा, विधि-विधान, अन्धविश्वास, लोकगाथा, लोकोक्ति आदि के अन्तर्भाव मनले रहलें। एह तथ्य के जानकारी देत ‘ द स्डरी ऑफ फोकलोर ‘ में एलन डन्डी लिखलें कि
‘In 1846 William Toms using the name Ambrose Merton, wrote a letter of ” The Athenaeum” in which he propased that a ‘ Good Saxon Compound) ‘ Folklore ‘ be employed in place of suchlebels as ” Popular Antiquities ” and Popular literature. Noteworthy is Tom’s conception of folklora and gis essentially enumerative definition; manners, customs, obsevances, superstitions, ballads, proverbs and so forth .” ( Alan Dundes ; The Styde of folklore, page-4 )
विलियम टाम्स अपना पत्र में फोकलोर से जुड़ल विषय सामग्री के क्रमवार खतम होखे के बात स्वीकार करत ओकरा के बचावे खातिर पहल करेके बात कइले रहलें। ऊ फोकलोर के व्याख्या करत एकरा के आम जनता के ज्ञान भा विद्या मतलब लोक विद्या (A lore of the people ) कहले बाड़न। बाद में चलके ई लोकविद्या भा फोकलोर शब्द अथवा विषय बहुते लोकप्रिय हो गइल।
पच्छिम के कुछ विद्वान फोकलोर के जनता का संस्कृति के अध्ययन मनले बाड़न त कुछ एकरा साहित्यिक रूप पर अधिका जोर देले बाड़न। मेरियो लीच अपना संपादित ग्रंथ ‘ डिक्शनरी ऑफ फोकलोर, माइथोलॉजी एंड लीजेण्ड ‘ में कैगो विद्वान के फोकलोर से जुड़ल परिभाषा रखले बाड़न।
विलियम वास्कम के अनुसार एकर सम्बन्ध पुराण, गाथा, लोककथा, लोकोक्ति, पहेली वगैरह विषय से बा जवना के माध्यम मौखिक शब्द बा। मानव विज्ञान के जानकार लोग के अनुसार एकर अध्ययन क्षेत्र प्रथा, अन्धविश्वास, कला, शिल्प, वेश-भूषा, गृह के प्रकार आ भोजन सामग्री आदि से बा –
‘ The term folklore has come to mean myths, legends, folktales, proverbs, riddles, verse and variety of other forms of artistic expression x x x x Folkorists are interested in customs, arts and crafts, drass, house-types and food recipes.’
-( डिक्शनरी ऑफ फोकलोर; मेरियो लीच पन्ना -314)
एकरा अलावे एटेलियो एस्पिनोजा, जॉर्ज फास्टर, आर. डी. जेमर्सन, मेकएडवर्ड लीच, आर्चर टेलर, जॉन मिश आदि फोकलोर का सामग्रियन के प्रायः सामाजिक मानव विज्ञान ( Social Anthropology) के विषय सामग्री मानके एकरा सीमा क्षेत्र में पारम्परिक लोकविश्वास, लोकसाहित्य- कथा, गीत, गाथा आदि , जादू, बुझउवल, खेल, सुक्ति, कला-शिल्प, लोकनृत्य आदि के गिनती कइले बाड़न। एह तरह से एकर क्षेत्र बहुते विस्तार लेले बा। जॉन मिश के मत से, मानव जीवन के हर क्रिया-कलाप एकरा सीमारेखा में आ जाई।
ई सब त भइल फोक आ फोकलोर से सम्बन्धित पच्छिमी विद्वानन के विचार आ परिभाषा। बाकिर भारतीय ज्ञान-परम्परा के मोताबिक इहाँ के ‘लोक ‘शब्द फोक से बहुते पुरान आ बहुअर्थी बा। ई लोक शब्द संस्कृत के ‘लोक दर्शने’ धातु से घञ् प्रत्यय के मेल से बनल बा। एह धातु के अर्थ होला- देखल। जवना के लट् लकार अन्य पुरुष एक वचन के रूप होला- लोकते। ऊह से लोक के अर्थ हो जाला- देखेवाला। एह तरह से ऊ समस्त जन समुदाय, जे ई काम करेला लोक कहा सकेला। एही लोक से लोग शब्द बनल बा। जवना के अर्थ होला सामान्य जन भा जन समुदाय।
अइसे त एह लोक शब्द के बेवहार ऋगवेद में आम जनता भा जन के अर्थ में कए जगे भइल बा। एकरा पुरुष सुक्त में लोक शब्द जीव आ जगह दूनों खातिर आइल बा –
‘ नाभ्या आसीदन्तरिक्षं, शीर्ष्णो द्यौ: समवर्तत।
पदभ्यां भूमि: दिश श्रोत्रात्, तथा लोकानकल्पयत्।।’
( ऋगवेद-पुरुष सुक्त -10/90/24 )
एकरा अलावे पाणिनि, वररुचि, व्यास आदि लोक वब्द के बेवहार सामान्य जन, जगह आदि खातिर बार-बार कइले बाडें। महाभारत के लोकयात्रा आ गीता में लोकसंग्रह पर बहुते जोर देहल बा। –
‘ अज्ञान तिमिरान्धस्य, लोकस्य तू विचेष्टत:।
ज्ञानाञ्जन श्लाकाभि:, नेत्रोन्मीलन कारनम्।।
( महाभारत; आ. पर्व -1/84 )
मतलब, ई ग्रंथ अंधकार रूपी अज्ञान से दुखी लोक ( सामान्य जन ) का आँखि के ज्ञानरूपि आंजन के श्लाका लगाके खोलेवाला बा।
लोक शब्द के परिभाषा देत आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के मत बा कि ‘ लोक ‘ शब्द के अर्थ जनपथ चाहे गाँव नइखे। बल्कि नगर आ गाँव में फइलल ऊ जन समुदाय बा जवना के बेवहारिक ज्ञान के आधार पोथी ना होखे। ई लोग नगर में परिष्कृत, रूचिसम्पन्न आ सुसंस्कृत समुझे जाए वाला लोग के तुलना में अधिका सहज, सरल, स्वाभाविक आ बनावटिपनी आडंबर से दूर प्राकृतिक जीवन जीए के आदी होलन आ परिष्कृत रूचि वाला लोग के समूचा विलासिता का सुकुमारता के जीए खातिर जवन जरूरी चीज होला, ओकनी के पैदा करेलें। ( जनपद- आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी, वर्ष-1, अंक-1, पन्ना-65 )
डॉ. कुंजबिहारी दास के अनुसार जे लोग संस्कृत आ परिष्कृत लोग के प्रभाव से बाहर रहत अपना पुरातन परिस्थितियन में वर्तमान बाड़ें। उनके के लोक कहल जाला –
‘ The people that live is more or less primitive condition outsite the sphere of sophisticated influences.
( डॉ. कुंजबिहारी दास- ए स्टडी ऑफ ओरिसन फोकलोर )
संस्कृति, लोकसंस्कृति,कल्चर आ फोककल्चर
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संस्कृति शब्द सम् उपसर्ग आ कृ धातु के मेल से बनल बा। संस्कृति आ संस्कार शब्द व्याकरण के अनुसार सम् उपसर्ग के आगे कृति आ कार शब्द जोड़के क्रम से संस्कृति आ संस्कार शब्द बनल बा। आप्टे का संस्कृत अंग्रेजी कोश में संस्कृत, संस्कार आ संस्क्रिया शब्द बा। संस्कृति शब्द नइखे। संस्कृत मतलब संस्कार कइल आ दोष रहित करके शुद्ध कइल। एह तरह से संस्कार के अर्थ भइल कवनो चीज के दोष दूर करके परिष्कृत भा शुद्ध कइल। संशोधन कइल। संस्कृत साहित्य में संस्कृति का जगही संस्कार आ संस्क्रिया शब्द के चलन मिलेला।
अंगरेजी में संस्कृति खातिर कल्चर ( Culture ) शब्द बा। जवन लैटिन भाषा के कोलर (Colar) से बनल बा आ ई कोलर शब्द कुल्टुरा ( Cultura) से बनल बा। जवन संक्षेप में पूजा करें आ खेती-बाड़ी सम्बन्धी काम करेके बोधक ह। कुछ विद्वान कल्चर आ कल्टीवेशन ( Cultivation ) मतलब कृषिकर्म में समानता के स्थापना करेले। एह समानता के आधार पर कृषि विद्या ( Agriculture ) के सिद्धांत पर जइसे गाछ-बिरीछ के विकसित करके नीमन खेती तइयार काल जाला, ठीक ओइसहीं आदमी में आदमियत के भावना के पनपावे, कलंगावे, फुलावे आ फरावे खातिर जवना तरीका के अपनावल जाला, ओकरे के संस्कृति कहल जा सकेला।
कुछ विद्वान लोग के अनुसार कवनो समाज आ देश के विभिन्न जीवन व्यापार भा सामाजिक सम्बन्धन में मानवता का नजरिया से प्रेरणा प्रदान करनेवाला आदर्श सबके ही संस्कृति कहल जाला।
संस्कृति के ढ़ंग से समुझे खातिर पहिले प्रकृति के समुझे के होई। पहिले प्रकति से संस्कृति। प्रकृति में प्र कारन ह आ कृति कार्य ह। कारन एगो होला आ अव्यक्त होला अउर कार्य अनेक आ व्यक्त होला। एसी एक के अनेक आ अव्यक्त के व्यक्त होइए गइल नू सिरजन ( सृष्टि ) ह। कृति मतलब कार्य उपयोग में आवेला आ संस्कृति के संबंध उपयोग से ना योग से होला। योग आ उपयोग के भेद समुझे खातिर सूरज आ धरती के उदाहरन से समुद्र जा सकेला। धरती से सीधे सीधे उपयोग में अंधेरा, सूरज ना, बाकिर धरती के उपयोग जुगुत बनावे में सूरजे के योग बा। जदि सूरज के योग ना होके त धरती अनुपयोगी हो जाई। प्रकृति धरती मतलब पृथ्वी के समान ह आ संस्कृति सूरज के समान। बिना संस्कृति के प्रकृति अनुपयोगी बा।
आज वैज्ञानिक खोज से भाँति-भाँति के हर हथियार तइयार बा। जवन अपना रक्षा खातिर भा अन्याय-अत्याचार से रक्षा खातिर बहुते उपयोगी होला। बाकिर हर हथियार के पीछे संस्कृति ना होके त ऊ हर हथियार आत्मरक्षा आ पीड़ित के सुरक्षा के जगे आक्रमण आ शोषण के साधन बन सकेला। संस्कृति के बोध आदमी के भीतर बुद्धि-विवेक आ जीवन जीए के सलीका पैदा करेला। जवना से आदमी सभ्य बनेला। एसी से संस्कृति आ सभ्यता के जोड़ी पुरान बा। सभ्यता के सम्बन्ध संस्कृति से बा। बुद्धि विवेक प्रकृति के नियंत्रण करेला। विवेक से संयमित सभ्यता देव सभ्यता हो जाला। दोहरा ओर आत्मा प्रकृति के नियंत्रण ना करें, बल्कि प्रकृति के अतिक्रमण करेला। प्रकृति के अतिक्रमने संस्कृति बन जाला।
संस्कृति खातिर अंगरेजी में कल्चर शब्द बा आ सभ्यता खातिर सिविलाइजेशन ( Civilisation )। एह संस्कृति आ सभ्यता में साँच पूछीं त साध्य आ साधन के फरक बा। संस्कृति साध्य ह आ सभ्यता ओह साध्य के पावे के साधन। सभ्यता मनुष्य के बाहरी सुख सुविधा आ साधन समृद्धि भर ह आ संस्कृति दर्शन, आदर्श, विश्वास, परम्परा आदि जीवन के साध्य ह। मानव विज्ञान शास्त्री डॉ. डी. एन. मजुमदार के अनुसार संस्कृति के अन्तर्गत मनुष्य के रीति-रिवाज, लोक आस्था-विश्वास, आदर्श, कला आ मनुष्य के उपराजल हर एक कौशल आ योग्यता के लिहल जा सकेला। ( एन इन्ट्रोडक्शन टू सोशल एन्थ्रोपोलाजी, पन्ना- 14, पहिल संस्करण, सन् 1960 ई.)।
सभ्यता आदमी के सामाजिक गुण आ बाहरी सम्पन्नता के द्योतक ह।
एह संस्कृति आ सभ्यता के एहू तरह से समुझल जा सकेला। संस्कृति महसूसे के विषय ह। ई संस्कार आ बेवहार से जनावे के चीज ह। ई कवनो पुरुष, परिवार, पड़ोस, परिवेश के बोली-बानी आ मेल-जोल में झलकेला। एकरा शाब्दिक व्युत्पतिमूलक अर्थ, परिभाषा आ रूप-स्वरूप के चर्चा भर कइल जा सकेला। कवनो चीज के चर्चा भर से ओकरा के सम्यक् ढ़ंग से समुझल-बोधल ना जा सके। जइसे मीठा का मिठापन के बरनन कइल जा सकेला। मीठा का मिठास के स्वाभाविक बोध त मीठा चिखाइये के करावल जा सकेला। कवनो संस्कृति मरे-मिटे ना। कालक्रम से ओकरा में बदलाव, बढ़ाव भा बहाव आ जाला। उहो गवें गवें मतलब लाहे लाहे। कुछ समय बीतला पर ओकरा में कुछ फरक महसूस हो पावेला। बाकिर नांव ओकर उहे रहेला। जइसे समय समय पर जरूरत का मोताबिक केहू का साइकिल के घंटी, पावडिल, ब्रेक, टायर-ट्यूर , हैंडिल, सीट, गोली-बैरिंग, फ्रौग, कैरियर आदि सब बदलात चल जाला। एक तरह से ओकर हर अंग-चीज बदला जाला, बाकिर ऊ कहाला उहे साइकिल। संस्कृतियो का संगे अइसने बात होला। संस्कृति देश, समाज, समय, जन समुदाय कवनो नाम से जुड़ल होखे, ओकर आत्मा उहाँ के लोक संस्कृतिये होले आ ओह लोक संस्कृति के आत्मा होला उहाँ का आम जन समुदाय के संस्कार आ विचार-बेवहार। ऊ आम जन भा जन समुदाय आडंबरी आकाशी चाल-ढ़ाल के बनतुलेट मतलबी मनई ना होके जमीन से जुड़ल जीव होलन। लोक संस्कृति ‘आत्मौपम्येन सर्वत्र ‘ का सिद्धांत के लेके जुगन से जीअत जिआवत आ जोगावत आ रहल बाड़न। अपने जइसन आन के बुझेलन। अपना सुख दुख के आपन सुख दुख बुझ के आपसी आत्मीयता का भाव के जीअल एह लोक संस्कृति के जान-परान आ पहचान ह जीए का एही तौर-तरीका से पारिवारिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, धार्मिक, राजनीतिक आ आर्थिक जीलन अउर ओकरा भावधारा के बीच सम्यक् समन्वय भावना । आन के आपन बनावे के बोली, बात, विचार-बेवहार।
प्रकृति का गोदी मे पलाइल-पोसाइल आ प्रकृतिये से अपना जीवन यात्रा में आवे वाला बिघ्न बाधा के दूर करेके हूनर लिहल एह लोक संस्कृति के खूबी ह। ‘ माता भूमि: पुत्रोऽहं पृथिव्या:’ के माने-जानेवाला एह मनई लोग का बुद्धि-विवेक के आधार पोथी भा कवनो ग्रंथ ना होखे, जीवन यात्रा में भेंटाइल बोध-बात होला।। ई संस्कृति आग उगिलत चिमनी, डंकरत मशीन आ बिजली-बत्ती में नहाइल नगर का शिष्ट-विशिष्ट संस्कृति से अलग चीज ह।
अपना इहाँ लोक संस्कृति आ शिष्ट संस्कृति में अधिका भेद-बिछेद ना होखे। जदि शिष्ट संस्कृति वाला लोग बिछेद करबो करेला त लोक संस्कृति के मनई ओह पर ध्यान ना देके नजरअंदाज कर देला लोग। इहाँ एह दूनों के एक दोसरा के पूरक रूप में देखल जाला। बहुत जगे वेद-शास्त्र विद्या जहुआले त लोक विद्या राह बतावेले।
एक बेर एगो सेठ किहाँ बिआह रहे त नाऊ भाई मूँज का रसरी में आम के पल्लो लगाके घर के ऊपर चारो ओर से चउकेठ देलन। विधि-विधान खातिर गाई का गोबर से जमीन लीप के बीचे चउका पूरलें। सतन्जा अनाज के ऊपर माटी का कलसा में पानी, कसइली, पइसा ,आम के पल्लो तेकरा ऊपर ढकनी में अक्षत आ ओकरा ऊपर चउमुख दीआ में तेल-बाती सरिआ के वैदिक पंडित जी के आसन पर विराजे ला निहोरा कइलें। वैदिक बाबा नाऊ भाई के डंटलें – ‘ एह टंटघंट के कवन जरूरत रहल ह। ई सब शास्त्र सम्मत् नइखे। हमरा एकर कवनो जरूरत नइखे।’ वैदिक बाबा का शिष्ट संस्कृति आ वैदिक मंत्र-विधान भर में आस्था रहे आ एने नाऊ भाई लोक संस्कृति आ लोक विद्या विशारद रहलें। बोललें – ‘ बाबा बिना गाई, गोवंश आ ओकरा गोबर के खेती-बाड़ी आ अन्न-अनाज कहाँ से आई। ई वंदनबार घर का चारो ओर के हरिआली आ पौध-पर्यावरण के प्रतीक बा आ ऊ कलशा कइसन जवना में जल ना। ऊ जल कइसन जवना से आम के पवित्र पल्लो अस नवजीवन के उत्पत्ति ना भइल। ऊ जीवन कइसन जवना में खंडित ना होखे के पवित्र प्रतीक ई धान का चाउर वाला अक्षत ना होखे आ ऊ अखंडित जीवन कइसन जवना में खुशी, मंगल आ ज्ञान के चारो दिशा में फइले वाला जस आ जोत ना होखे आ ऊ खुशी- मंगल आ जस कइसन जवना कि ध्वनि दुनिया में शंख आ घंटी बजावे से ना गूंजल।’ नाऊ भाई का लोक विधान वाला विद्या के आगे वैदिक बाबा के बोलती बंद हो गइल। नाऊ भाई आगे कहलें- बाबा जी राउर मंत्र वैदिक आ शास्त्रीय बा त माई-बहिन लोग के गावल ई कुल्ह लोक संस्कार गीत आ रस्म-रिवाज लौकिक मंगलाचरण आ मंगलगान बा। ई भारतीय समाज एह दूनों से चलायमान बा। पहिल लोक विद्या फेर राउर शास्त्रीय मंतर।’ बाबा मुस्कात आसन धइलें।
कहे के मतलब कि भारत में लोकविद्या मात्र फोकलोर ना ह। इहाँ शिष्ट संस्कृति वाला ऋग्वेद में भी जग-हवन के विधान लोक विद्या के मानल ग्रंथ अथर्ववेद से लिहल बा। अथर्ववेद में जंतर-मंतर, जादू-टोना, लोक आस्था-मान्यता, विश्वास-धारना, रीति-रिवाज के चर्चा बा। जदि उपनिषदन में आत्मा-परमात्मा, जीव-ब्रह्म आदि पर चिंतन बा त गृहसूत्रन में लोकजीवन आ लोकविद्या से जुड़ल हर पक्ष पर विचार भइल बा। बाल्मीकि, व्यास, तुलसी सभे का काव्यन में लोकविद्या आ शास्त्रीय विद्या दूनों के सम्यक् समन्वय बा। हर भाषा का लोक साहित्य ; जइसे – लोकगीत, गाथा कथा, नृत्य, नाटक, लोकोक्ति, बुझउवल आदि में ओही लोक विद्या के अध्ययन-अनुसंधान कइल जाला। कुछ विद्वान लोग लोक विद्या के लोक वार्ता आ लोक संस्कृति भी कहेलन। बाकिर हमरा समझ से लोक वार्ता आ लोक संस्कृति आदि लोक विद्या के अन्तर्गत आ सकेला।
प्रस्तुत आलेख सुविख्यात लेखक अउरी कवि डॉ जयकांत सिंह ‘जय’ के लिखल ह। जयकांत जी एसोसिएट प्रोफेसर सह अध्यक्ष, भोजपुरी विभाग, लंगट सिंह महाविद्यालय, बिहार में कार्यरत बानीं अउरी विभिन्न सांस्कृतिक अउरी साहित्यिक गतिविधि में सक्रिय योगदान देत रहेनीं।