आरा शहर जेकर नामकरण माँ आरण्य देवी के नाम पर पड़ल बा। इ सती के एकावन खंडन में से एक ह। पुराणन में मान्यता बा कि इहां मां सती के सिर गिरल रहल। एहीसे इ मंदिर के बहुत ज्यादा महत्व बा अउर तबे से इ मंदिर सिद्ध पीठ के रूप में भी जानल जाला।
इ मंदिर के स्थापना सवंत २०५ में भईल रहल। आरा शहर के बीचों-बीच नगर के शीश महल चौक के उत्तर पूर्व छोर प स्थित मां आरण्य देवी के मंदिर में वइसे त साल भर भक्तन के भीड़ लागेला, लेकिन नवरात्र में एकर महत्ता अउर बढ़ जाला।
वइसे त मां आरण्य देवी से जुड़ल कई कथा प्रचलित बा। सबसे पहिला कथा ह कि प्राचीन काल में ए जगह प एगो आदि शक्ति के प्रतिमा रहल। आरण्य वन में इ मंदिर चारो ओर घनघोर जंगल से घिरल रहल। आपन वनवास के क्रम में पाचों पांडव एहिजे ठहरल रहलन अउर मां आदिशक्ति के पूजा अर्चना कइले रहलन। त मां धर्मराज युधिष्ठर के स्वप्न दिहली कि तू एहिजा मां आरण्य देवी के स्थापन करा, जिनकर आशीर्वाद से तोहन लोग के सब कष्ट दूर होई। कहल जाला कि ओही समय में युधिष्ठर माँ आरण्य देवी के स्थापना कइले रहन।
एह मंदिर से जुड़ल एगो अउर प्रचलित कथा ह कि द्वापर युग में इहां मयूरध्वज नाम के एगो बड़ा प्रतापी राजा राज करत रहलें। उनकर ख्याति बड़ा दूर-दूर ले फइलल रहल। उनकर ख्याति सुनके एक दिन भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन के संगे ब्राह्मण रूप धर के इनकर परीक्षा लेवे खातीर पहुँचलें। महादानी राजा के परीक्षा खातिर भगवान कृष्ण आपन भोजन में राजा के लड़ीका के दाहिना अंग के मांस खाए के इच्छा रखलें अउर शर्त रखलें कि उ अपना हाथ से लकड़ी चीरे वाला औजार जेकरा के आरा कहल जाला, ओह से बीचो–बीच चीरिहें अउर ओह समय में उनकर आँख से आंसू भी ना आवे के चाहीं, तबे हम भोजन ग्रहण करब।
एह पर महादानी मयूरध्वज आपन पत्नी संगे आरा से आपन बेटा के ब्रह्मण सत्कार खातीर चीरे चलल, तबे माँ आरण्य देवी प्रगट भईली अउर राजा के महादान से प्रसन्न होके उनका आगे भी बढ़िया से राज-काज चलावे के आशीर्वाद दिहली।