ई दुनिया बड़ बे; बहुत बड़ औरी एतहत बड़हन दुनिया में जाने केतने लोग बाड़ें औरी जाने केतने लोग पहिलहूँ ए दुनिया में रहल बाड़ें लेकिन कुछ नाँव लोगन के मन में ए तरे घुस जाला कि ओकरा खाती समय के केवनो मतलब ना रह जाला। औरी ओह हाल में बकत आपन हाथ-गोड़ तुरि के बइठ जाला। चुपचाप। अइसन लोगन क नाँव औरी काम एक पीढी से दूसरकी पीढी ले बिना केवनो हील-हौल पहुँच जाला। कुछ अइसने लोगन में एगो नाम बा महापण्डित राहुल सांकृत्यायन जी कऽ जिनकर साहित्य में बहुआयामी योगदान बा। छ्त्तीस गो भाखा के गियान औरी डेढ सौ किताबन के लिखनिहार, सांकृत्यायन के जी के दुनिया जाने केतने नाँव दिहलस; महापण्डित, यायावर, अन्वेषक, कथाकार, आलोचक, नाटककार, त्रिपिटकाचार्य, निबन्ध लेखक, युगपरिवर्तन साहित्यकार औरी ना जाने केतने नाँव। इहाँ के बचपन के नाँव केदारनाथ पाण्डेय रहल। राहुल सांकृत्यायन नाम इहाँ का खुदे रखनी जब इहाँ बौद्ध धर्म के परभाव अईनी। भगवान बुद्ध के लईका राहुल पर इहाँ राहुल नाँव लिहनी औरी अपनी कुल के गोत्र सांकृत्य पर सांकृत्यायन औरी हो गईनी राहुल सांकृत्यायन। उहाँ का हिन्दी से ले के भोजपुरी तक भाखा में लिखनी लेकिन उहाँ भोजपुरी खाती कम बाकी हिन्दी के घुमन्तु साहित्य (यात्रा-वृतांत) सृजन औरी विश्व दर्शन खाती ढेर जानल जाला। इहाँ के हिन्दी घुमन्तु साहित्य (यात्रा-वृतांत) के पिता कहल जाला।
लरिकाई औरी जिनगी क जतरा
महापण्डित राहुल सांकृत्यायन जी, केदारनाथ पाण्डेय के नाम से आजमगढ़ के कनैला गाँव में ९ अप्रैल १८९३ के दिने पंदहा गाँव के रहबासी औरी एगो धार्मिक किसान परिवार में गोवर्धन पाण्डेय जी के घरे जनम लिहनी। लेकिन इहाँ लरिकाई अपनी ननिऔरा में नाना पण्डित राम शरण पाठक क घरे कनैला गाँव में गुजरल। चार भाईन केदारनाथ, श्यामलाल, रामधारी औरी श्रीनाथ औरी एगो बहिन रामपियारी में सबसे बड़ केदारनाथ बहुते कम उमिर में अनाथ हो गइलीं। इहाँ के माई कुलवन्ती देवी के मरन बस अट्ठाइस साल के उमिर में हो गइल तऽ पैंतालीस साल के उमिर में पिता जी के गुजर गइलें। ए कारन इहाँ के लालन-पालन नाना के घरे भईल। बहुत कम उमिर में माई बाबूजी के मरला के असर उहाँ के सगरी जिनगी पर परल औरी बहुत कम उमिर में घर-गिरहथी औरि जिनगी से मन उचट गइल। परिनाम ई भईल कि नौ बरिस के उमिर में घर दुआर छोड़ि के भागि गईनी लेकिन घरे अभी कुछ अईसन बाकी रहे जेवन उहाँ के थोरही दिन में बोला लिहलस।
गाँवे से कुछ दूर रानी सराय के मदरसा में शुरुआती पढाई-लिखाई शुरू भईल लेकिन 1902 के हैजा के बेमारी फईलल औरी पढाई बन हो गईल। फेर इनकर बाबूजी इनके इनकरी फूफा महादेव पंडित के संगे बछवल गाँव भेज दिहल जहाँ संस्कृत से परिचय भईल। सातवीं कक्षा के पढाई पुरा करत-करत मन भरि गईल। पढाई के घरी एगो शेर पढलें
सैर कर दुनिया की गाफिल,जिंदगानी फिर कहां।
जिन्दगानी गर रही तो,नॊजवानी फिर कहां।
ए शेर कऽ असर केदारनाथ के मन पर बहुत गहिराह पड़ल। एही घरी जब अभी उमिर खाली तेरह बरिस के रहे तऽ केदारनाथ के बियाह कऽ दिहल गईल। लेकिन ई बियास काहाँ ले उनका के बान्ह के राखित; उल्टे उनकर मन उचट गईल औरी चौदह साल के उमिर में घर-दुआर छोड़ि के कलकत्ता भागि गईलें। बाद में केदारनाथ के भेंट बिहार के परसा मठ के महंत से भईल औरी ऊ केदारनाथ के अपनी संगे अपनी मठ ले के चलि गईलें औरी केदारनाथ के नया नाँव रखलें रामोदर स्वामी। रामोदर स्वामी परसा मठ में हिन्दू शास्त्रन औरी संस्कृत के जम के पढाई कईलें औरी कुछ समय बाद इनकर मन भर गईल परसा मठ से। एही घरी इनकर संपर्क कुछ स्वतंत्रता सेनानीन से भईल औरी अखबारन में रा सा ले नाँव से लिखे लगन। पर उनकर मन कब कहीं एक जगह टिके वाला रहे कि टिकीतऽ। सभ छोड़-छाड़ के चलि देहलें। औरी बौद्द धर्म अपना लिहलें औरी रामोदर स्वामी बनि गईलें राहुल सांकृत्यायन।
घुमक्कड़ी
इहाँ के नाना फौजी रहलें औरी उहाँ के जतरा औरी सिकार के कहानी हमेसा सुनावस। कबो दिल्ली के तऽ कबो हैदराबाद के औरी जाने कहाँ-कहाँ के बात केदारनाथ के बतावस औरी ई सभ काथा-कहानी जेवन एगो लईका के बहलावे खाती सुनावत रहलें ओकर असर छोटहन केदारनाथ के मन पर बहुते गहिराह परल औरी दुनिया देखे के लालसा जाग गईल। उनकर पहिला जतरा बनारस कऽ भईल जब उनकरी जनेव (जनेऊँ) खाती रेल गाड़ी से विंध्याचल गईलें। दूसरी बेर भागि के कलकत्ता गईलें जब नौ साल के उमिर रहे औरी फेर चौदह साल के उमिर में जब घीव के हाँड़ी गिर फूट गईल औरी नाना के डरन केदारनाथ घर छोड़ि के कलकत्ता पहुँच गईलें। सन 1910 से ले के 1914 ले वैराग्य भाव के प्रभावित हो के हिमालय घूमत बितबलें ओकरा बाद एगो बहुत लमहर औरी ना ओराए वाला जतरा शुरू भईल। जेवन बनारस, अगारा, लाहौर, लद्दाख औरी कुर्ग़ होखत श्रीलंका, नेपाल, तिब्बत, इंग्लैण्ड, यूरोप, जापान, कोरिया, मंचूरिया, सोवियत रुस, चीन औरी ईरान तक गईल। जहाँ गईनी उहाँ के भाखा सीखनी।
साहित्यिक जतरा
सांकृत्यायन जी के साहित्यिक जिनगी 1927 में शुरू भईल जेवन सगरी जिनगी चलल। अपनी साहित्यिक जतरा में उहाँ के डेढ़ सौ किताब, जेवना में से एक सौ उन्तीस गो प्रकासित भईली सऽ। संगहीं उहाँ के हजारन गो लेख, निबन्ध औरी व्याख्यान भी लिखले बानी। कुछ बरियार औरी महत्त्वपूर्ण रचना नीचे दिहल बाड़ी सऽ:
उपन्यास औरी कहानी (मौलिक)
सतमी के बच्चे (कहानी, 1939 ई.), ‘जीने के लिए’ (1940 ई.), ‘सिंह सेनापति’ (1944 ई.), ‘जय यौधेय’ (1944 ई.), ‘वोल्गा से गंगा’ (कहानी संग्रह, 1944 ई.), ‘मधुर स्वप्न’ (1949 ई.), ‘बहुरंगी मधुपुरी’ (कहानी, 1953 ई.), ‘विस्मृत यात्री’ (1954 ई.), ‘कनैला की कथा’ (कहानी, 1955-56 ई.), ‘सप्तसिन्धु’
उपन्यास औरी कहानी (अनुबाद)
‘शैतान की आँख’ (1923 ई.), ‘विस्मृति के गर्भ से’ (1923 ई.), ‘जादू का मुल्क’ (1923 ई.), ‘सोने की ढाल’ (1938), ‘दाखुन्दा’ (1947 ई.), ‘जो दास थे’ (1947 ई.), ‘अनाथ’ (1948 ई.), ‘अदीना’ (1951 ई.), ‘सूदख़ोर की मौत’ (1951 ई.), शादी’ (1952 ई.)
साहित्य औरी इतिहास
‘विश्व की रूपरेखा’ (1923 ई.), ‘तिब्बत में बौद्ध धर्म’ (1935 ई.), ‘पुरातत्त्व निबन्धावलि’ (1936 ई.), ‘हिन्दी काव्यधारा’ (अपभ्रंश, 1944 ई.), ‘बौद्ध संस्कृति’ (1949 ई.), ‘साहित्य निबन्धावली’ (1949 ई.), ‘आदि हिन्दी की कहानियाँ’ (1950 ई.), ‘दक्खिनी हिन्दी काव्यधारा’ (1952 ई.), ‘सरल दोहा कोश’ (1954 ई.), ‘मध्य एशिया का इतिहास, 1,2’ (1952 ई.), ‘ऋग्वैदिक आर्य’ (1956 ई.), ‘भारत में अंग्रेज़ी राज्य के संस्थापक’ (1957 ई.), ‘तुलसी रामायण संक्षेप’ (1957 ई.), दक्खिनी हिन्दी का व्याकरण
भोजपुरी नाटक
‘तीन नाटक’ (1942 ई.), ‘पाँच नाटक’ (1944 ई.)
कोश
‘शासन शब्द कोश’ (1948 ई.), ‘राष्ट्रभाषा कोश’ (1951 ई.)
जीवनी
‘मेरी जीवन यात्रा’ (दो भागों में 1944), ‘सरदार पृथ्वी सिंह’ (1944 ई.), ‘नये भारत के नये नेता’ (1944 ई.), ‘राजस्थानी रनिवास’ (1953 ई.), ‘बचपन की स्मृतियाँ’ (1953 ई.), ‘अतीत से वर्तमान’ (1953 ई.), ‘स्तालिन’ (1954 ई.), ‘कार्ल मार्क्स’ (1954 ई.), ‘लेनिन’ (1954 ई.), ‘अकबर’ (1956 ई.), ‘माओत्से तुंग’ (1954 ई.), ‘घुमक्कड़ स्वामी’ (1956 ई.), ‘असहयोग के मेरे साथी’ (1956 ई.), ‘जिनका मैं कृतज्ञ’ (1956 ई.), ‘वीर चन्द्र सिंह गढ़वाली’ (1957 ई.)
धरम औरी दरसन
‘वैज्ञानिक भौतिकवाद’ (1942 ई.), ‘दर्शन दिग्दर्शन’ (1942 ई.), ‘बौद्ध दर्शन’ (1942 ई.) ‘बुद्धचर्या’ (1930 ई.), ‘धम्मपद’ (1933 ई.), ‘मज्झिमनिकाय’ (1933), ‘विनय पिटक’ (1934 ई.), ‘दीर्घनिकाय’ (1935 ई.), ‘महामानव बुद्ध’ (1956 ई.), संयुत्त निकाय
संस्कृत बालपोथी (सम्पादन) धरम, दरसन
‘वादन्याय’ (1935 ई.), ‘प्रमाणवार्त्तिक’ (1935 ई.), ‘अध्यर्द्धशतक’ (1935 ई.), ‘विग्रहव्यावर्त्तनी’ (1935 ई.), ‘प्रमाणवार्त्तिकभाष्य’ (1935-36 ई.), ‘प्र. वा. स्ववृत्ति टीका’ (1937 ई.), ‘विनयसूत्र’ (1943 ई.)
राजनीति औरी साम्यवाद
‘बाइसवीं सदी’ (1923 ई.), ‘साम्यवाद ही क्यों’ (1934 ई.), ‘दिमागी ग़ुलामी’ (1937 ई.), ‘क्या करें’ (1937 ई.), ‘तुम्हारी क्षय’ (1947 ई.), ‘सोवियत न्याय’ (1939 ई.), ‘राहुल जी का अपराध’ (1939 ई.), ‘सोवियत कम्युनिस्ट पार्टी का इतिहास’ (1939 ई.), ‘मानव समाज’ (1942 ई.), ‘आज की समस्याएँ’ (1944 ई.), ‘आज की राजनीति’ (1949 ई.), ‘भागो नहीं बदलो’ (1944 ई.), ‘कम्युनिस्ट क्या चाहते हैं?’ (1953 ई.)
जतरा
‘मेरी लद्दाख यात्रा’ (1926 ई.), ‘लंका यात्रावली’ (1927-28 ई.), ‘तिब्बत में सवा वर्ष’ (1939 ई.), ‘मेरी यूरोप यात्रा’ (1932 ई.), ‘मेरी तिब्बत यात्रा’ (1934 ई.), ‘यात्रा के पन्न’ (1934-36 ई), ‘जापान’ (1935 ई.), ‘ईरान’ (1935-37 ई.), ‘रूस में पच्चीस मास’ (1944-47 ई.), ‘घुमक्कड़ शास्त्र’ (1949 ई.), ‘एशिया के दुर्गम खण्डों में’ (1956 ई.)
देस-दरसन
‘सोवियत मध्य एशिया’ (1947 ई.), ‘किन्नर देश’ (1948 ई.), ‘दार्जिलिंग परिचय’ (1950 ई.), ‘कुमाऊँ’ (1951 ई.), ‘गढ़वाल’ (1952 ई.), ‘नैपाल’ (1953 ई.), ‘हिमालय प्रदेश’ (1954 ई.), ‘जौनसागर देहरादून’ (1955 ई.), ‘आजमगढ़ पुरातत्त्व’ (1955)
भोजपुरी साहित्य में जोगदान
भोजपुरी साहित्य में राहुल सांकृत्यायन जी के जोगदान बहुत बरिआर बा। इहाँ का कम से कम आठ गो नाटक भोजपुरी में लिखने बानी। मेहरारुन के दुरदसा, जोंक, नइकी दुनिया, जपनिया राछस, ढुनमुन नेता, देस रक्षक, जरमनवा के हार निहचय, प्रमुख रहे जवन दू भागन में परकासित भइल बा; ‘तीन नाटक’ औरी ‘पाँच’ नाटक के नाँव से।
हर दोसरहा आदमी नियर इहाँ में भी अपनी भाखा खाती बहुत परेम औरी इज्जत रहे लेकिन इहाँ का भोजपुरी में थोरी देरी से लिखे शुरू कईले बानी। आदमी कऽ सुभाव हऽ कि ऊ पहिले जवार के देवता पूजे ला, फेर तब जा के घर क देवता के पूजे ला। कारन बस इतने बा कि जेवन चीझ के बारे में आदमी जनमते सुने लागेला ओकर बहुत मोल ना होला। लेकिन मय देस दुनिय देखला के बाद बुझाला कि घरहूँ तऽ ऊहे सभ चीझ बा जेवन बहरि बा। फेर घर के चीझ से परेम जागे ला। सायद राहुल सांकृत्यायन जी संगे भी इहे बात रहल कि इहाँ वोल्गा से गंगा ले आवे में लमहर बकत लागि गईल। इहाँ के पहिला नाटक कऽ किताब सन 1942 में ‘तीन नाटक’ कऽ नाँव से लिखनी औरी दूसरकी नाटक कऽ किताब ‘पाँच नाटक’ के नाँव से 1944 में छ्पल। लेकिन ए नाटकन के पढला पर साफ-साफ लऊके ला कि केतना गहीर समझ रहल होई उहाँ के पूर्वी समाज के कि आजो उहाँ के नाटक समाज खाती सीसा नियर बा। ‘जोंक’ नाटक के एगो गीत आजो केतना सही लागत बा।
“हे फिकिरिया मरलस जान।
साँझ बिहान के खरची नइखे, मेहरी मारै तान।।
अन्न बिना मोर लड़का रोवै, का करिहैं भगवान।। हे॰।।
करजा काढि़-काढि़ खेती कइली, खेतवै सूखल धान।।
बैल बेंचि जिमदरवा के देनी सहुआ कहे बेईमान।। हे॰।।”
एके पढला पर कहीं से ई नईखे लागत कि ई आज के सच ना हऽ। किसान के हाल जेवन बरणन सन 1942 में उहाँ का कईले बानी ऊ आजो सच लागता। ई खाली एगो उदाहरन बा उहाँ के भोजपुरिया समाज के समझ के बारे में। बाकी रचनन के पढला पर बहुते कुछ नजर आवेला। छोट से छोट भावन के भी उहाँ बड़ी बढिया से परस्तुत कईले बानी।
भोजपुरी खाती ऊठल परेम उहाँ के भीतर दोसर क्षेत्रीय भाखन के बारे में राय बदलले बा औरी कईगो भाखा जईसे कि आज के अंगिका औरी वज्जिका के नाँव उहाँ का धईनी। उहाँ का भोजपुरी के गहन अध्ययन कईनी औरी एकरो नाँव ‘मल्ली’ औरी ‘काशिका’ पुरान महाजनपदन के नाँव से धरे के कोसिस कईनी लेकिन लोगन के ई पसन ना परल काँहे कि भोजपुरी नाँव पहिलहीं से परसिध हो गईल रहे औरी भोजपुरी के उहाँ के दू गो भाखा के रुप में देखावत औरी बाँटत रहनी।
उहाँ के भोजपुरी के परचार औरी परसार खाती बहुते परियास कईनी। सन 1947 के भोजपुरी साहित्य सम्मेलन के अध्यक्षता कइनी जेवन गोपालगंज, बिहार में भईल रहे। उहें के कहला पर महेन्द्र शास्त्री जी 1948 में भोजपुरी के पहिला पत्रिका “भोजपुरी” निकलनीं। ‘भिखारी ठाकुर’ जी के साहित्य जगत में मान-सम्मान औरी पहिचान दियवावे में उहाँ के बहुत बड़हन जोगदान बा। उहें का सबसे पहिले ‘भिखारी ठाकुर’ जी के ‘भोजपुरी क शेक्सपियर’ औरी ‘भोजपुरी क हीरा’ उपाधि दिहनी।
राजनीति औरी आंदोलन
सांकृत्यायन जी सन 1921 से सन 1927 कऽ समय में राजनीति में आ गईल बानी। एही खाती कुछ दिन छपरा में रहनी। स्वतंत्रता आंदोलन में भाग लिहनी तऽ जेल जाए के परल औरी बक्सर जेल में छव महीना रहनी। एही घरी बाढ से मारल लोगन के सेवा भी कईनी औरी कांग्रेस के जिला मंत्री भी रहनी। एकरा बाद 1927 में श्रीलंका चल गईनी। फेर 1938 से 1944 के बीच कई गो किसान औरी मजदूर आंदोलन के हिस्सा बननी। एही समय कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्य बनला खाती 29 महीना खाती 1940 से 1942 के बीच जेल में रहनी।
धरम
इहाँ के जनम एगो सनातनी बाभन परिवार में भईल औरी शुरूआती संस्कार भी सनातनी ढंग से भईल लेकिन सांकृत्यायन जी के संबन्ध में ई सभ कुछ बेकार हो गईल औरी उहाँ ओहे मननी जेवन उहाँ के तर्क औरी बुद्धि के हिसाब से ठीक लागल। उहाँ के हर धार्मिक रूढि के बिरोध कईले बानी। ‘तुम्हारी क्षय’ ए बात उदाहरन बा।
पुरस्कार औरी सम्मान
सांकृत्यायन जी कऽ लगे केवनो औपचारिक डिग्री ना रहे तबो उहाँ क किताब ‘मध्य एशिया का इतिहास’ एक समय आक्सफोर्ड यूनीवर्सिटी क कोर्स में रहे। उहाँ के अनुराधा पुर विश्वविद्यालय क दर्शन विभाग औरी रुस क लेलिनग्राद विश्वविद्यालय में प्राचार्य के रुप में पढवनी लेकिन भारत में उहाँ के ऊ मान सम्मान ना मिलल जेकर उहाँ के हकदार रहनी। बाद में उहाँ 1958 में साहित्य अकादमी पुरस्कार औरी 1963 पद्म भूषण पुरस्कार मिलल। उहाँ के मरला के बाद 1993 जतरा साहित्य के क्षेत्र में महापंडित राहुल सांकृत्यायन पुरस्कार भारत सरकार देबे शुरू कईलस। 1993 में भारत सरकार के डाक विभाग उहाँ पर एक रुपया के डाक टिकट भी जारी कईलस। अब संगहीं भारत सरकार के पर्यटन मंत्रालय भी महापंडित राहुल सांकृत्यायन पर्यटन पुरस्कार के नाम से पर्यटन साहित्य खाती हर साल पुरस्कार देले। उहाँ के गाँवे एगो चित्रसाला भी बलन बा।
पारिवारिक जिनगी
इहाँ का अपनी जिनगी में तीन गो बियाह कइले रहनी। पहिला बियाह नौ साल के उमिर में घर के लोग कईल। दूसरका बियाह उहाँ के रुस में मास्को निवास के घरी कईनी। लेलिनग्राड विश्वविद्यालय के भारत-तिब्बत विभाग के सचिव ‘लोला येलेना’ नाँव के एगो मेहरारू से इहाँ के परेम हो गईल औरी उनसे इहाँ के बियाह क लिहनी औरी एगो लईक भी भईल जेकर नाँव इहाँ ‘राहुलोविच’ रखनी। लेकिन भारत लौटे बेरा अपनी पत्नी औरी लईका के ओही जा छोड़ के आ गईनी औरी मसूरी में रहे लगनी। एहिजा उहाँ के अपनी स्टैनो कमला से बियाह कईनी। बाद में इहाँ कऽ दार्जलिंग चलि गईनी औरी ओहिजा स्मृतिलोप औरी मधुमेह के बेमारी से १४ अप्रैल, १९६३ अपनी जिनगी जतरा पुरा कईनी।
संदर्भ सूची
डा उदय नारायण तिवारी, भोजपुरी भाषा और साहित्य, बिहार राष्ट्रभाषा परिषद, पटना
श्री दुर्गाशंकर प्रसाद सिंह, भोजपुरी के काव्य और कवि, बिहार राष्ट्रभाषा परिषद, पटना
जी ए ग्रियेर्सन, लिग्विस्टिक सर्वे ऑफ इंडिया, जिल्द-5, खंड-2
Ram Sharan Sharma, Rahul Sankrityayan and Social Change, Indian History Congress, 1993.
Himalayan Buddhism, Past and Present: Mahapandit Rahul Sankrityayan centenary volume by D. C. Ahir (ISBN 978-81-7030-370-1).
Prabhakar Machwe: “Rahul Sankrityayan (Hindi Writer)” New Delhi 1998: Sahitya Akademi. (ISBN 81-7201-845-2).
Bharati Puri, Traveller on the Silk Road: Rites and Routes of Passage in Rahul Sankrityayan’s Himalayan Wanderlust, China Report (Sage: New Delhi), February 2011, vol. 47, no. 1, pp.37-58.
महापंडित राहुल सांकृत्यायन पर प्रस्तुत आलेख राजीव उपाध्याय(संपादक, मैना) के लिखल ह।